मेरी आँखों से कोई फिक्र चुरा लेता
मुझे भी कोई अपना लेता
मैं भी किसी के काँधे सर रखकर
ज़िंदगी का मज़ा लेता
घर में दीवार नहीं थी दरवाज़े क्या होते
मैं ऐसे में रौज़न कहाँ बना लेता
तेरे मिलने की थी उम्मीद सो जीते थे
वरना मैं भी फकीरों की दुआ लेता
थके पाँव जाती थी उम्मीद मेरे घर से
न थी हौसलों में ताक़त कि बुला लेता
बस ख्वाब ही था ये ख्यालेखाम अपना
वो रूठता और मैं मना लेता
मुस्करा कर कर लिया सब्र हमने
न थी दुआ तो क्या दवा लेता
मुहब्बत आग थी सो बुझ गई
रुसवाई का धुआं कहाँ छुपा लेता
© राज़ नवादवी
भोपाल ०१/१२/२०१४
रौज़न- खिड़की; ख्यालेखाम- अधूरा/ टूटा हुआ ख्याल