मैं मंजिल के पास आकर बिखर न जाऊं

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मैं मंजिल के पास आकर बिखर न जाऊं

सोचता हूँ आज रात अपने घर न जाऊं

मुझे है इन्तेज़ार उम्रदराज़ हो जाने का

दिन भर बेरोज़गार रहूँ और दफ्तर न जाऊं

लहरों को देख तेरी नज़रों की याद आती है

सोचता हूँ फिर कभी समंदर न जाऊं

गली में कुहराम मचा है और मैं बच्चा हूँ

माँ ने कहा है मैं घर से बाहर न जाऊं

छोड़ गया अपना कुनबा बीवी की खातिर

अब्बा कहतें हैं मैं बड़े भाई पर न जाऊं

© राज़ नवादवी

उन्हीं घर और किताबों के लिये

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ, Hindi Poetry

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सूखे फूल जो फिर खिल उठेंगे पेड़ों पे

क्षीण आशाएँ जो पुन: जाग जाएँगी हृदय में

भूले रास्ते

जो फिर से आ मिलेंगे मेरी असीम यात्रा पथों से

बिछड़े लोग, छूट गये घर, पुरानी किताबें

जिनसे फिर होगा समागम

जीवन के किसी अकल्पित क्षण में………

मैं जी रहा हूँ उसी फूल

उन्हीं आशाओं

उन्हीं रास्तों

उन्हीं लोग

उन्हीं घर और किताबों के लिये.

© राज़ नवादवी

एक तुम्हारे खत ने रोका है मुझे

राज़ नवादवी: एक अपरिचित कवि की कृतियाँ, Hindi Poetry

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नदी के वे द्वीप

जो दिशांतर में लुप्त नहीं हुए अभी

संबंधों के निष्कर्ष

जो लिखे नहीं गये अब तक

वे लोग जो अभी

आधे-अधूरे हैं विश्वासों की परिधि में

वे आहटें

जिनके सोते से जागने का भय

आशंकाओं ने संभाल रखा है अब तक

दूरियों के गहराये भँवर

जिनमें अभी शेष नहीं हुआ है सब कुछ

आशा-निराशा की वीथि

सोते जागते के सपने

सच और झूठ के झगड़े….

अपनी डायरी को जब कभी फेंकना चाहा

एक तुम्हारे खत ने रोका है मुझे

@ Raz Nawadwi

Hindi Poetry

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वो आँखें थी या ख्वाब के बगूले,

वो जुल्फें थीं या रात के समंदर की लहरें,

वो होंठ थे या सेब तराशे हुए,

वो चेहरा था या किसी नदी का सुनहरा टुकड़ा,

वो कामत थी या लहलहाते फसल का खेत,

उसका पैरहन था या जिस्म के तनासुब में बनाया कालिब,

उसकी नज़र थी या कि कोई नीली बर्क,

उसकी हंसी थी या प्यार का गुदगुदाता ऐतेराफ़,

उसकी चाल थी या किसी सपेरे की हिलती बीन,

उसके कॉल थे या ख्वाब से जागती अंगड़ाई,

उसकी उदासी थी या मीलों लंबा पहाड़ का दामन,

उसकी खुशी थी या कहकशाँ में भीगे सितारे,

उसका लम्स था या किसी शिफागर की दवा,

उसका साथ या चांदनी रात में रातरानी से लिपटे नाग.

 

वो नही है आज… कहीं भी आसपास,

उसकी खबर भी नहीं मिली एक मुद्दत से कुछ ख़ास,

न कोई उम्मीद ही है अब उसके मिलने की

रुत भी जा चुकी है ज़िंदगी बदलने की

 

© राज़ नवादवी

कामत- बदन; पैरहन- कपड़ा; तनासुब- अनुपात; कालीब- साँचा; बर्क- बिजली; ऐतेराफ़- स्वीकारोक्ति; कॉल- बोल; कहकशाँ- आकाशगंगा; लम्स- स्पर्श; शिफागर- वैद्य, डॉक्टर; मुद्दत- समय; रुत- ऋतु, मौसम

 

सच देखने में इतना सुन्दर कहाँ था

Hindi Poetry

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आँखों में सपने थे दूर उड़ने के

हकीक़त को लेकिन पर कहाँ था

जिस्म जिसमें दो एक हो जाते

हमारा वो अपना घर कहाँ था

चाँदनी रात थी सन्नाटे भी दिखते थे

दीवारों के कांधों पे छप्पर कहाँ था

गली मोहल्ले वाले सब सो रहे थे

रात की चारपाई पे बिस्तर कहाँ था

ज़िंदगी रूह थी मुश्किलों की मारी हुई

नकाबों के बाज़ार में पैकर कहाँ था

हम मर जाते जिसे बस देखते ही

सच देखने में इतना सुन्दर कहाँ था

 

© राज़ नवादवी

पैकर- शरीर

यह कैसा दंश है प्रिये?

Hindi Poetry

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मुझे ज्ञान नहीं था

तुम्हारे गाँव की वीथिका, घर, उपत्यका,

तुम्हारे नयन, और तुम्हारे हृदय से प्रारम्भ होकर

मेरे और तुम्हारे प्रेम के समीकरण का तार

इतना दीर्घ होगा

कि हमारा पुनः एक दूसरे से

अपने मूल रूपों में मिलना

एक नई सृष्टि के सृजित होने से पहले

संभव नहीं होगा!

 

प्रेम के उद्भव और विलय का

यह कैसा दंश है प्रिये?

@ राज़ नवादवी

मेरी आँखों से कोई फिक्र चुरा लेता

Hindi Poetry

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मेरी आँखों से कोई फिक्र चुरा लेता

मुझे भी कोई अपना लेता

मैं भी किसी के काँधे सर रखकर

ज़िंदगी का मज़ा लेता

घर में दीवार नहीं थी दरवाज़े क्या होते

मैं ऐसे में रौज़न कहाँ बना लेता

तेरे मिलने की थी उम्मीद सो जीते थे

वरना मैं भी फकीरों की दुआ लेता

थके पाँव जाती थी उम्मीद मेरे घर से

न थी हौसलों में ताक़त कि बुला लेता

बस ख्वाब ही था ये ख्यालेखाम अपना

वो रूठता और मैं मना लेता

मुस्करा कर कर लिया सब्र हमने

न थी दुआ तो क्या दवा लेता

मुहब्बत आग थी सो बुझ गई

रुसवाई का धुआं कहाँ छुपा लेता

 

© राज़ नवादवी

भोपाल ०१/१२/२०१४

रौज़न- खिड़की; ख्यालेखाम- अधूरा/ टूटा हुआ ख्याल

ऐ मेरे गाँव की मिट्टी, धूल और हवाओ

Hindi Poetry

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ऐ मेरे गाँव की मिट्टी,
धूल और हवाओ,
आओ उसकी याद में तुम्हें
मैं अपनी मुट्ठी मैं उड़ा लूं.
ऐ आम के बगीचे के पुरसुकून सायो,
तुझसे न फिर लौट के आने वालों की
खुशबूओं का पता लूं.
तू मुझे कोई फैसला तो सुनाए,
जिसे मैं अपनी तकदीर बना लूं.

कुछ करने न करने,
कुछ होने न होने,
कुछ कहने न कहने की कशमकश में
ये ज़िंदगी यूँ ही गुज़रती रहे.
और दिल को ये हैरत भी होती रहे
कि तेरे न मिलने की सूरत में मैं
कैसी शिफा लूं
और किसकी दुआ लूं!

@राज़ नवादवी

 

The heart has got blighted

Poetry

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The heart has got blighted

Like a wilted flower

All that is revealed through it

Looks afflicted and without a lustre

 

Even the mirror was telling me today

What a broken look

I allowed on my face to play

So hard to fathom in matters of heart

Why the agitations of the mind have a say?

 

And yet harder was to infer

The poor heart’s predilections

To wear garlands of smiles

Even in the face of deep afflictions

 

I wonder what would have become

Of my incessant restlessnesses

Had there not been to fall back upon

The bedrock of my soul, its boulevard and recesses?

 

And I wonder if ever

Restlessnesses lose their own restfulness,

Anxieties ever become anxious

Part a whole, and whole a fullness?

 

@ Raz Nawadwi

अधूरी चाहत का कोई चेहरा नहीं होता

मेरी डायरी के पन्ने

two_Love_Whooping_Cranesअधूरी चाहत का कोई चेहरा नहीं होता, ये कोई रिश्ता निभाया नहीं होता. न इसका कोई बदन होता है न कोई लिबास. न होते हैं पुराने कपड़ों में बोसीदा इसके एहसास. न टूटी चूड़ियों में दबी होती है इसकी खनक, न पाई जा सकती है घर के सामानोअसबाब में लिपटे लम्सों में इसकी रौनक. न होती हैं ज़मीन पे लिखी इसके नक्श-ओ-निशान की रुबाइयां, और न ही बालकनी से सटे सब्ज़ा-ओ-शज़र में होती हैं इसके माज़ी की परछाइयां!

अधूरी चाहत का कोई गवाह नहीं…लोकतक झील के पानी पे तुम्हारी उनींदी उँगलियों से उकेरे गए सोये-जागते ख़्वाबों के हिरन की मानिंद हमारे तुम्हारे प्यारे के हिरन भी वहीं के जंगलों में खो गए हैं. बस, इस खोये प्यार की आँखों की डूबी उम्मीदों की चमक से हमारे तुम्हारे दिल के महल रौशन हैं…बाकी तो सब तारीख़ के खंडहरों की सजाई इमारत.

हमारा अधूरा प्यार ही सही, सलामत रहे…!

@ राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने

भोपाल ०४/०७/२०१४ पूर्वाह्न ११.०७ बजे

लिबास- कपड़ा; बोसीदा: पुराना; लम्स- स्पर्श; रुबाई- कविता की एक शैली; सब्ज़ा-ओ-शज़र- हरियाली और पेड़; माज़ी- अतीत; लोकतक झील- इम्फाल के पास की इक मशहूर झील; मानिंद- तरह; तारीख़- इतिहास