ऐ मेरे गाँव की मिट्टी,
धूल और हवाओ,
आओ उसकी याद में तुम्हें
मैं अपनी मुट्ठी मैं उड़ा लूं.
ऐ आम के बगीचे के पुरसुकून सायो,
तुझसे न फिर लौट के आने वालों की
खुशबूओं का पता लूं.
तू मुझे कोई फैसला तो सुनाए,
जिसे मैं अपनी तकदीर बना लूं.
कुछ करने न करने,
कुछ होने न होने,
कुछ कहने न कहने की कशमकश में
ये ज़िंदगी यूँ ही गुज़रती रहे.
और दिल को ये हैरत भी होती रहे
कि तेरे न मिलने की सूरत में मैं
कैसी शिफा लूं
और किसकी दुआ लूं!
@राज़ नवादवी